लफ्ज़-ओ-मानी का बहम क्यों है सुखन ?
किस ज़माने में थी इनमें यारियाँ
शौक़ का एक दाव बेशौक़ी भी है
हम हैं उसके हुस्न की इन्कारियाँ
मुझसे बदतौरी न कर ओ शहरयार
मेरे जूतों के हैं तलवे ख्वारियाँ
वो जो जीते हैं, उन्होंने बेतरह
जीतने पे हिम्मतें हैं हारियाँ
तुमसे जो कुछ भी न कह पाये मियाँ
आख़िरश करते वो क्या बेचारियाँ
खा गयी उस ज़ालिम-ए-मज़लूम को
मेरी मज़्लूमी-नुमा अय्यारियाँ
ये हरामी हैं ग़रीबों के रक़ीब
हैं मुलाज़िम सब के सब सरकारियाँ