All writings of Jaun Eliya in hindi | jaun eliya collection

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Jaun Eliya Collection | All Couplets , Poetry , Nazm, Ghazal In HINDI

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हम क्यों जन्मे हैं ? बस इसी सवाल के जवाब में हम जिंदगी बिताते हैं | Jaun Eliya



Jaun Eliya




Jaun Eliya 


हम क्यों जन्मे हैं ?


बस इसी सवाल के जवाब में हम जिंदगी बिताते हैं, 

कोई जवाब ढूंढता है , कोई बिना ढूँढे मस्त रहता है !


न जानने में बेहोशी है, और सब जानने में सुकून !! इसी सुकून में दरवेश जीते हैं और बाक़ी लोगों की मौत के करीब जाकर बेहोशी टूटती है और जानते हैं कि हम क्या थे ....क्यों थे!!!  
कालिदास से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर तक , महात्मा बुद्ध से लेकर ओशो तक आर्यभट्ट से लेकर ए पी जे कलाम तक ऐसी महान व्यक्तित्व हुऐ जो पहले ही जान गए, और यही सबसे बड़ा कर्ब है! इंसानी हालत में होकर ख़ुद को जान लेना कर्ब ही तो है। जौन भी इसी कर्ब में रहे और तड़पते रहे! 
पस-ए-पर्दा कोई न था फिर भी
एक पर्दा खिंचा रहा मुझ में!! 
सैयद सिब्त ए असग़र नक़वी , पूरा नाम और 'जौन एलिया' ख़ुद ही ख़ुद का नामकरण किया हुआ। 'जौन' हालिया दौर के बेहद मक़बूल शायर, 14 दिसम्बर 1931 में, शहर ए अमरोहा (आम और रुई के लिए मशहूर) उत्तर प्रदेश में जन्में । बचपन से ही हस्सास तबियत लिए, जौन इल्मी ओ अदबी माहौल में बड़े हुए। जौन को 6 भाषाओं का इल्म हासिल था ऊर्दू , अरबी, फ़ारसी , हिब्रू , संस्कृत और अंग्रेज़ी। 1947 में विभाजन के बाद जौन पाकिस्तान शिफ़्ट होने वाले अपने ख़ानदान के आख़िरी शख़्स थे । वे 1956 में कराची में अपने भाइयों के पास जाकर रहने लगे । वहाँ उन्होंने उर्दू आलमी डाइजेस्ट शुरू की कई रिसालों और मैगज़ीन वग़ैरह की इदारत भी की। उन्हें पाकिस्तान लुग़द कमेटी का चैयरमैन भी बनाया गया और ये सब उन्हें जवानी ही में हासिल हो गया लेकिन उनकी मंज़िल शायरी थी । 
दाद ओ तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं ! 
तुम अपने हम सुख़न रहना
हमनशीं साँस फूल जाती है 
यक़ीन के किलों को तोड़ने वाले जौन .... जौन एलिया , नई पीढ़ी के रॉकस्टार ! ख़ुद को नकारते जौन,  बेज़ार जौन, मुन्किर जौन ( critic ) creatively dissatisfied , unorganised , unfolowers of beliefs और भी जाने क्या क्या ,सारे शब्द जौन को समझने के लिए कम हैं जौन ख़ुद में एक पूरी दुनिया हैं ! जौन जैसा ही मु'आमला उनके चाहने वालों का है , जाने कितने ही नामों से ख़ुद को पुकारते हैं ये जौनवाले , जौनीयत के मुरीद , लाखों पेज , लाखों सोशल साइट्स , हज़ारों यूट्यूब चैनल आज जौन के नाम पे चल रहे हैं ! हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान तक जौन के चाहनेवालों की तादात दिन ब दिन बढ़ती जाती है! जौन मानो ख़ुशबू की तरह बिखर रहें हैं हर कहीं , हर जौन का पढ़ने वाला , ख़ुद को इस गुमान में रखता है जैसे जौन को सबसे ज़्यादा वो जानता है , जौन जो अपने चाहने वालों के साथ करतें है कोई और शायर नहीं करता , जौन तारी हो जातें हैं ज़हन पर !जौन अपने रहते जानते थे कि ऐसा होना ही है। 
ये शख़्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो,
उस की तरफ क़दम ही नहीं सर भी आएंगे! 
ज़रा भी मुझसे तू ग़ाफ़िल न रहियो
मैं बेहोशी में भी बेमाजरा नईं! 
जौन आफ़ताब (सूरज) हैं .....दूर से रौशन करते हैं , अंधेरा दूर करते हैं ...जैसे जैसे पास जाओ तो एक अलग तरह कि उर्जा महसूस होती है, और नज़दीक जाने पे आपको ईल्म होता है, जौन कैसे जल रहे हैं ! कैसे आग निकल रही है ...!
ख़ुद को तबाह करते हैं , बे-मलाल ! दर्द से राहत पाते जौन। 
आग, दिल शहर में लगी जिस दिन 
सबसे आख़िर में वाँ से हम निकले!!.. 
जमा हमने किया है ग़म दिल में 
इसके अब सूद खाए जाएँगे! 
उसके विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत ए दिल की थी ख़राब , और ख़राब की गई!! 
वह पेशावर हैं जो लोगों के ज़ख्म सीते है
हमारे ज़ख्म हमारे बहुत चहीते हैं!! 
जौन माहताब (चाँद) हैं .....इश्क़ ओ आशिक़ी का सुबूत... फ़लक़ पर चमकता हुआ, अँधेरे दिलों को सियाह रात में रौशन करता हुआ माहताब , इश्क़ में सराबोर माह जो महबूब के जिस्म में चाँदनी बन के उतरता जाता है, और घुलता जाता है लहू में। ये चमकदार लहू रौशन कर रहा है शायरी के चाहनेवालों के दिलों को। जौन की शायरी रूहानी रिश्तों से जिस्म की ज़रूरत तक को साफ़गोई से बयान करती है । जैसे इन अश'आर में देखिए - 
वो जिस्म जमाल था सरापा 
और मुझ को जमाल चाहिए था!! 
जिस्म की साफ़गोई के बावस्फ़
रूह ने कितना झूठ बोला था 
जिस्म में आग लगा दूँ उस के 
और फिर ख़ुद ही बुझा दूँ उस को 
आ गई दरमयान रूह की बात
ज़िक्र था जिस्म की ज़रूरत का 
रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया
जिस्म को जिस्म की अदावत में! 
इश्क़ को दरमियां न लाओ कि मैं
चीख़ता हूँ बदन की उसरत में! 
है मिरा ये तिरा पियाला-ए-नाफ़
इससे तू ग़ैर को पिलाइयो मत 
नाफ़ प्याला तो जौन ही का पैटेंट है , इस लफ़्ज़ को रदीफ़ रख के ग़ज़ल कही है जौन साहब ने। 
हाए 'जौन' उस का वो पियाला-ए-नाफ़ 
जाम ऐसा कोई मिला ही नहीं 
मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम जम-ब-जम 
नाफ़-पियाले की तिरे याद अजब सही गई 
जौन साहब के यहाँ जो बेबाक़ी और साफ़गोई मिलेगी वो शायद ही किसी दूसरे शायर के यहाँ मिले!! जौन की शायरी में इंसानी जज़्बात जिस साफ़ तरीके से बयान है वो क़ाबिले दाद है , रानो को नोच खाने जैसी बात हो या मुहब्बत जुज़ बदहवासी जैसी बात जौन अश'आर में ढालते हैं बेहद  साफ़गोई से , वो कोई मेटफॉर इस्तेमाल करने से गुरेज़ करते हुए दिखते हैं! 
क्या भला सागर ए सिफ़ाल कि हम 
नाफ़ प्याले को जाम कर रहे हैं! 
लब तेरे हिश्त और तेरे पिस्तान हिश्त
हिश्त जानाँ जान जानाँ जान हिश्त 
ये मेरा जोश-ए-मोहब्बत फ़क़त इबारत है 
तुम्हारी चम्पई रानों को नोच खाने से 
जौन की हर बात , उनका कहा हुआ उनके चाहने वालों के लिए सनद है !! जौन बेबाक़ और साफ़ गो हैं ! जौन आईना है जो समाज को उसकी अस्ल सूरत दिखता है , समाज उसको तोड़ कर टुकड़े टुकड़े भी कर दे तब भी हर टूटा हिस्सा , समाज को चीरता हुआ चीख़ चीख़ कर सच बयान करेगा!! जौन का मु'आमला एक ऐसे बाग़ी का है जो बग़ावत पे आमादा है । 
हक़ पे हो कर भी हार जायें हम?
ये दहर, कर्बला है? पता नहीं 
एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक 
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई ! 
अब नहीं कोई ख़तरे की बात 
अब सभी को सभी से ख़तरा है! 
बोलते क्यूँ नहीं मेरे हक़ में 
आबले पड़ गए ज़बान में क्या! 
ऐ मसीहा तेरे दुख से है सिवा दुख किसका
किस से पूछूँ तेरे बीमार कहाँ हैं जाने!

यूँ तो जौन का हर मिसरा हर शेर किसी को भी दीवाना बना सकता है ! लेकिन जो कैफ़ियत ये मिसरा सुन के तारी होती है उसको बयाँ नही किया जा सकता । 
'ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी' 
ख़ून थूकना इस कदर हावी है जौन के यहाँ कि जिस तरह मीर के यहाँ आँसू और ग़ालिब के यहाँ शराब। ये लहू थूकना कॉपीराइट है जौन साहब का । 
रंग ही क्या तेरे सँवरने का 
हम लहू थूक कर सँवरते हैं 
थूक दे ख़ून जान ले वो अगर
आलम-ए-तर्क-ए-मुद्दआ मेरा...! 
सोचा है कि अब कार-ए-मसीहा न करेंगे
वो ख़ून भी थूकेगा तो पर्वा न करेंगे!! 
उनके इल्म का कोई सानी नहीं तभी तो इंटेलेकटुअल अपरोच देखने को मिलती है शायरी में । उनकी एक नज़्म 'दरख़्त ए ज़र्द' जो कि उनकी और उर्दू अदब की सबसे तवील नज़्मों में शुमार है, इस नज़्म को उन्होंने एक ही रात में आसुंओं में सराबोर हो कर कहा था ऐसा उनके जानने वाले बताते हैं, ये नज़्म दर'असल जौन की ज़ात का आईना है ! ये नज़्म जौन का  अपने बेटे ज़रयुन एलिया को लिखा ख़त है और उस में वो संसार के इतिहास की बातें करते हैं , अपने ख़ानदान की बातें करते हैं, अमरोहा की बातें करते हैं , मुहब्बत की , सुकरात की, रुस्तम , ज़ाल , सोहराब , मीर , ग़ालिब ख़ुसरो की और भी जाने क्या क्या बातें करते हैं! 
मोहब्बत एक पसपाई है पुर-अहवाल हालत की 
मोहब्बत अपनी यक-तौरी में दुश्मन है मोहब्बत की 
सुख़न माल-ए-मोहब्बत की दुकान-आराई करता है 
सुख़न सौ तरह से इक रम्ज़ की रुस्वाई करता है 
सुख़न बकवास है बकवास जो ठहरा है फ़न मेरा 
वो है ताबीर का अफ़्लास जो ठहरा है फ़न मेरा 
सुख़न यानी लबों का फ़न सुख़न-वर यानी इक पुर-फ़न 
सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन 
मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी!! 
ख़ुद के वुजूद से जुड़े सभी सवालों का जवाब ही हमारी ज़िंदगी का रद्दे अमल है । जौन उस दरवेश की तरह हैं जो ये जान गया हो कि हर शय का सच क्या है !! जैसे मीरा ने जाना लिया था ,जैसे कबीर , जैसे तुलसी और बाबा बुल्लेशाह ने जान लिया था !!! जौन एक सूफ़ी के जैसे हैं, जो रक़्स करता जाता है....और अपने ही भीतर उतरता जाता है, बिंदास , फक्कड़ , सब लाग लपेट से कोसो दूर !! ख़ुदा के होने पे सवाल खड़े करना भी ख़ूब भाता है जनाब को - 
जो कहीं भी न हो, कभी भी न हो 
आप उस को ख़ुदा समझ लीजिए!! 
इक अजब तौर हाल है कि जो है 
या'नी मैं भी नहीं ख़ुदा भी नहीं ! 
लोग कहते हैं मैंने जोग लिया 
और धूनी रमा चुका हूँ मैं 
ज़र्रा भर भी न थी नुमूद अपनी 
और फिर भी जहानियाँ थे हम! 
बुत है कि ख़ुदा है वो माना है न मानूँगा 
उस शोख़ से जब तक मैं ख़ुद मिल नहीं आने का!! 
एक वाक़या यूँ है कि जौन मुरादाबाद स्टेशन पर पहुंचते हैं किसी अदबी महफ़िल में शुमार होने को, उन्हें अमरोहा जान से प्यारा था ! लोगों का हुज़ूम महबूब शायर के लिए पहुंचा और जौन साहब शियाह चश्मा लगाये ट्रैन से उतरतें हैं और मिट्टी उठा उठा कर अपने बिखरी ज़ुल्फ़ों में भर लेते है। 
जौन के कलाम में उनके मादरे वतन अमरोहा से उनकी मुहब्बत ख़ूब देखने को मिलती है , ये मुहब्बत भी उन्हें विरसे में मिली थी उनके वालिद मौलाना शफ़ीक़ हसन एलिया का ये कत'आ देखिए - 
ज़हे तर्ज़े बयाने अमरोहा
मुस्तनद है ज़ुबाने अमरोहा
देहली ओ लखनऊ का है औसत 
अल्लाह अल्लाह शाने अमरोहा 
जौन ख़ुद भी अमरोहा का ज़िक्र अपने बिछड़े हुए किसी महबूब की तरह करते हैं। ये कैफ़ियत लफ़्ज़ों में आ ही नहीं पायेगी, क्योंकि"लफ़्ज़ ख़याल का हक़ मार लेते हैं",और ख़याल ख़ुद जौन हो तो लफ्ज़ बौने हो जाते हैं |जौन के क़रीबी बताते हैं कि जौन कहते थे "मैं उस रुख़ से बैठना चाहता हूं, जिधर से अमरोहा की हवा आती हो"। 
था दरबार ए कलां भी उसका नौबत खाना उसका था
थी मेरे दिल की जो रानी वो अमरोहा की रानी थी!! 
अमरोहा में बान नदी के पास जो लड़का रहता था,
अब वो कहां है? मैं तो वही हूं, गंगा जी और यमुना जी!! 
जौन वो डगर हैं जिसपे शोले बिछे हैं, चलना शुरू कीजे तो पाँव धधक जायेंगे , और चलिये तो आहिस्ता आहिस्ता पूरा बदन धूँ धूँ कर के जलने लगेगा, अंदर तक भड़केगा, आगे बढियेगा तो पूरा ज़िस्म राख़ हो चूका होगा, फिर वो राख़ झड़ती जायेगी फ़ज़ा में फैलेगी, और नए आप निकल के आएँगे। 
मैं हूँ मेमार पर ये बतला दूँ 
शहर के शहर ढा चुका हूँ मैं! 
फ़ना हर दम मुझहे गिनती रही है 
मैं इक दम का था और दिन भर रहा हूँ 
जौन की शायरी में एक ढंग है जिसमे ख़ुद से मुकर जाने का सिलसिला है ...हर शय को रद्द करने का एक मसअ'ला है !
जौन की नस्र निगारी भी कमाल है , उनकी किताब फ़रनूद से एक मज़मून का छोटा सा हिस्सा जिसका उन्वान है 'नफ़रत'
"नफ़रत ज़ेहन की एक इन्तिहाई बे हंगाम ना हम आहंगी की मोहलिक तरीन (जानलेवा) कैफ़ियत है। ये इंसान के ज़ेहन का सबसे ज़हरीला आरिज़ा है । नफ़रत का तो लफ़्ज़ ही एक बेहद क़ाबिले नफ़रत लफ़्ज़ है। इस लफ़्ज़ का नून नहूसत ( बद किस्मती) का नून है, इस लफ़्ज़ की फ़े फ़ित्ने (उथल पुथल) और फ़साद की फ़े है, इसकी रे रिज़ालत (नीचता) की रे है, इसकी ते तबाही और तबाहकारी कि ते है। ये बात कितनी उदास और मायूस कर देने वाली है कि इंसानी दानिश अपनी तमामतर मोजिज़ नुमायी के बावजूद सबसे ज़ियादा मुहीब (भयंकर) बीमारी यानी नफ़रत का इजाज करने में पूरी तरह नाकाम रही है।" 
वजूद इक जब्र है मेरा अदम औक़ात है मेरी 
जो मेरी ज़ात हरगिज़ भी नहीं वो ज़ात है मेरी 
मैं रोज़-ओ-शब निगारिश-कोश ख़ुद अपने अदम का हूँ 
मैं अपना आदमी हरगिज़ नहीं लौह-ओ-क़लम का हूँ 
आख़िर में एक नज़्म जो हस्सास और बाग़ी जौन के भीतर की टीस और दर्द को उभारती है , दर्द पार्टीशन का हो या ग़रीबी का या मज़हब का .....! 
पाको हिन्दोस्ताँ के फ़नकारो
अक्लो-दिवानगी के दिलदारो 
बिन तुम्हारे है शौक़-ए-कारे-मना
तुमसे है आबे-झेलमो-जमना 
हम जो हैं किस क़दर हैं मालामाल
ऐ ख़ुशा कालिदास और इक़बाल 
दिल में मस्त और जाँ में मस्त रहें
दोनों अपने गुमां में मस्त रहें 
है अजब इनका अपना अपना तौर
चश्मे-बद्दूर दिल्ली ओ लाहौर 
मादरे-वक़्त की कमाई तो हैं
यनि आख़िर को दोनों भाई तो हैं 
किस क़दर बदनसीब हैं दोनों 
कि निहायत ग़रीब हैं दोनों 
याँ सिला कुछ नही है मेहनत का
चाहिए कुछ इलाज ग़ुरबत का 
चाहिए मौसिक़ी का ज़ेरो- बम
कैसा एटम भला कहाँ का बम 
कौन कहता है ये सवेरा है
दिल के घर में बड़ा अँधेरा है 
सौ में नब्बे मियाँ जो बसते हैं
इक निवाले को वो तरसते हैं 
चारागर हैं जो ऐश करते हैं
और उनके मरीज़ मरते हैं 
हैं जो लड़के किताब को तकते
कभी इस्कूल जा नही सकते 
हैं सवाल और जवाब चाहिए है
अब हमें इंक़लाब चाहिए है 
हैं सवाल और जवाब चाहिए है
अब हमें इंक़लाब चाहिए है!!


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