वो नहीं था मेरी तबीयत का
दश्त में शहर हो गए आबाद
अब ज़माना नहीं है वहशत का
वक़्त है और कोई काम नहीं
बस मज़ा ले रहा हूँ फ़ुर्सत का
बस अगर तज़किरा करूँ तो करूँ
किस की ज़ुल्फ़ों का किस की क़ामत का
मर गए ख़्वाब सब की आँखों के
हर तरफ़ है गिला हक़ीक़त का
अब मुझे ध्यान ही नहीं आता
अपने होने का, अपनी हालत का
तुझको पा कर ज़ियाँ हुआ हमको
तू नहीं था हमारी क़ीमत का
क्या बताऊँ कि ज़िंदगी क्या थी
ख्व़ाब थी जागने की हालत का
सुबह से शाम तक मेरी दुनिया
एक मंज़र है उस की रुख़स्त का 💕
कहते हैं इंतिहा-ए-इश्क़ जिसे
इक फ़क़त खेल है मुरव्वत का
आ गई दरमयान रूह की बात
ज़िक्र था जिस्म की ज़रूरत का 💕
ज़िंदगी की ग़ज़ल तमाम हुई
क़ाफ़िया रह गया मुहब्बत का (जान शेर ) 💕