इक बार अपने आप में आऊँ तो आऊँ मैं
दिल से सितम की बेसरोकरी हवा को है
वो गर्द उड़ रही है कि ख़ुद को गँवाऊँ मैं
वो नाम हूँ कि जिस पे निदामत1 भी आब नहीं
वो काम हैं कि अपनी जुदाई कमाऊं मैं
क्यूँ कर हो अपने ख़्वाब की आँखों में वापसी
किस तौर अपने दिल के ज़मानों में आऊँ मैं
इक रंग-सी कमान हो ख़ुशबू-सा एक तीर
मरहम-सी वारदात हो और ज़ख़्म खाऊँ मैं
शिकवा-सा इक दरीचा हो नश्शा-सा इक सुकूत2
हो शाम इक शराब-सी और लड़खड़ाऊं मैं
फिर उस गली से अपना गुज़र चाहता है दिल
अब उस गली को कौन-सी बस्ती से लाऊँ मैं
1. लज्जा
2. निस्तब्धता।